Maa Kushmanda navratri pooja vidhi- माँ कुष्मांडा

माँ कुष्माण्डा की पूजा विधि About Maa Kushmanda in Hindi

कुष्मांडा देवी दुर्गाजी का चौथा स्वरूप हैं। इनको कुष्मांडा के नाम से जाना और पहचाना जाता है. नवरात्रा-पूजन के चौथे दिन कुष्मांडा देवी के स्वरूप की उपासना की जाती है.

इस दिन उपासक का मन ‘अनाहत’ चक्र में अवस्थित होता है. अतः इस दिन अत्यन्त पवित्र और स्थिर मन से कुष्मांडा देवी के स्वरूप को ध्यान में रखकर पूजा-उपासना में लगना चाहिये.

मां कुष्माण्डा की पूजा में भक्तों के समस्त रोग-शोक विनष्ट हो जाते हैं. इनकी भक्ति से आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है. कहते हैं कि यदि मनुष्य सच्चे हृदय से इनका शरणागत बन जाय तो फिर उसे अत्यन्त सुगमता से परम पद की प्राप्ति हो सकती है.

माँ कुष्मांडा की पूजा विधि Maa Kusmanda Pooja Vidhi

दुर्गा पूजा के चौथे दिन माता कुष्मांडा devi kushmanda की सभी प्रकार से विधिवत पूजा अर्चना करनी चाहिए. फिर मन को ‘अनाहत’ में स्थापित करने हेतु मां का आशीर्वाद लेना चाहिए और साधना में बैठना चाहिए.

दिन पवित्र मन से माँ के स्वरूप को ध्यान में रखकर पूजन करना चाहिए. माँ कुष्मांडा देवी की पूजा से भक्तों के सभी रोग नष्ट हो जाते हैं.

दुर्गा पूजा के चौथे दिन देवी कुष्मांडा की पूजा का विधान भी माँ ब्रह्मचारिणी और चन्द्रघंटा की पूजा की तरह ही है.

नवरात्रा के चौथे दिन सबसे पहले कलश और उसमें उपस्थित देवी देवता की पूजा करें. फिर माता के परिवार में शामिल देवी देवता की पूजा करें जो देवी की प्रतिमा के दोनों तरफ विराजमान हैं.

इनकी पूजा के पश्चात देवी कुष्मांडा की पूजा करें. पूजा की विधि शुरू करने से पहले हाथों में फूल लेकर देवी को प्रणाम करें और ध्यान करें.

कूष्मांंडा देवी मंत्र maa kushmanda beej mantra

सुरासम्पूर्णकलशं रूधिराप्लुतमेव च .
दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे.

कूष्माण्डा देवी मंत्र ध्यान maa kushmanda mantra

वन्दे वांछित कामर्थे चन्द्रार्घकृत शेखराम्.
सिंहरूढा अष्टभुजा कुष्माण्डा यशस्वनीम्॥
भास्वर भानु निभां अनाहत स्थितां चतुर्थ दुर्गा त्रिनेत्राम्.
कमण्डलु चाप, बाण, पदमसुधाकलश चक्र गदा जपवटीधराम्॥
पटाम्बर परिधानां कमनीया कृदुहगस्या नानालंकार भूषिताम्.
मंजीर हार केयूर किंकिण रत्‍‌नकुण्डल मण्डिताम्.
प्रफुल्ल वदनां नारू चिकुकां कांत कपोलां तुंग कूचाम्.
कोलांगी स्मेरमुखीं क्षीणकटि निम्ननाभि नितम्बनीम् ॥

कूष्माण्डा देवी स्त्रोत मंत्र

दुर्गतिनाशिनी त्वंहि दारिद्रादि विनाशिनीम्.
जयंदा धनदां कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्॥
जगन्माता जगतकत्री जगदाधार रूपणीम्.
चराचरेश्वरी कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्॥
त्रैलोक्यसुंदरी त्वंहि दु:ख शोक निवारिणाम्.
परमानंदमयी कूष्माण्डे प्रणमाम्यहम्॥

कूष्माण्डा देवी कवच मंत्र

हसरै मे शिर: पातु कूष्माण्डे भवनाशिनीम्.
हसलकरीं नेत्रथ, हसरौश्च ललाटकम्॥
कौमारी पातु सर्वगात्रे वाराही उत्तरे तथा.
पूर्वे पातु वैष्णवी इन्द्राणी दक्षिणे मम.
दिग्दिध सर्वत्रैव कूं बीजं सर्वदावतु॥

कुष्मांडा का अर्थ

अपनी मन्द, हल्की हंसी द्वारा अण्ड अर्थात् ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण इन्हें कुष्मांडा देवी के नाम से अभिहित किया गया है.

कुष्मांडा देवी की कथा maa kushmanda ki katha

ऐसे मानना है की जब सृष्टि का कोई अस्तित्व नहीं था और चारों ओर अन्धकार-ही-अन्धकार परिव्यास था, तब माँ कुष्मांडा ने अपने ‘ईषत्‘ हास्य से ब्रह्माण्ड की रचना की थी. इसलिए कहते हैं कि यही सृष्टि की आदि-स्वरूपा, आदि शक्ति हैं.

इसके पूर्व ब्रह्माण्ड का अस्तित्व था ही नहीं. मां कुष्मांडा की उपासना मनुष्य को आधियों-व्याधियों से सर्वथा विमुक्त करके उसे सुख, समृद्धि और उन्नतिकी ओर ले जाती है. अतः इनका निवास सूर्यमण्डल के भीतर के लोक में है. सूर्यलोक में निवास कर सकने की क्षमता और शक्ति केवल इन्हीं में है.

इनके शरीर की कान्ति और प्रभा सूर्य के समान ही देदीप्यमान है. इनके तेज की तुलना सिर्फ और सिर्फ इन्हीं से की जा सकती है. अन्य कोई भी देवी-देवता इनके तेज और प्रभाव की समता नहीं कर सकते. इन्हीं के तेज और प्रकाश से दसों दिशाएं प्रकाशित हो रही हैं. ब्रह्माण्ड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में अवस्थित तेज इन्हीं की छाया है.

कुष्मांडा की उत्पत्ति

माँ के इस रूप में इनकी आठ भुजाएं हैं. इसलिए यह रूप अष्टभुजा देवी के नाम से भी विख्यात है. इनके सात हाथों में कमण्डल, धनुष—बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा है. आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देनेवाली जपमाला है. इनका वाहन सिंह है. संस्कृत भाषा में कूष्माण्ड कुम्हडे़ को कहते है. इस कारण से भी ये कुष्मांडा कही जाती हैं.

साधक और भगतों को चाहिये कि हम शास्त्रों-पुराणों में वर्णित विधि-विधान के अनुसार मां दुर्गा की उपासना और भक्ति के मार्ग पर अहर्निश अग्रसर हों.

मां के भक्ति-मार्ग पर कुछ ही कदम आगे बढ़ने पर भक्त साधक को उनकी कृपा का सूक्ष्म अनुभव होने लगता है. यह दुःख स्वरूप संसार उसके लिये अत्यन्त सुखद और सुगम बन जाता है. मां की उपासना मनुष्य को सहज भाव से भवसागर से पार उतारने के लिये सर्वाधिक सुगम और श्रेयस्कर मार्ग है. अपनी लौकिक-पारलौकिक उन्नति चाहने वालों को इनकी उपासना में सदैव तत्पर रहना चाहिये.

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